प्यार महफिल और रंजिश तीनों ही का अजीब दोस्ताना है
जब होती हैं तो इंसान इंसान नहीं रहता
दिल दिल और दिमाग दिमाग दिमाग नहीं रहता
कहना कुछ चाहता है दिल कह कुछ देता
निकम्मा बन जाता है इश्क में आदमी कि
इस दुनिया में इश्क के सिवा उसका कुछ नहीं रहता
और महफिले खुद से खुद को तोड़ती हैं
किसी और का रुख मोड़ती हैं
रंजिशें तो गजब कहर ढाते हैं
अपनो से ही अपनों को लड़ वाती हैं
हम जानते हैं सब कुछ फिर भी संभल नहीं पाते
प्यार महफ़िल और रंजिश इन्हीं के चक्कर में हम खुदको भूल जाते
जीना चाहते हैं कुछ अलग तरीके से फिर भी इन्हीं पुराने ढर्रे के बीच में जिंदगी बिताते हैं
और इंसानियत की तो न पूछो
किसी कोने की किसी कब्र में दफन कर कर
हम कभी हैवान तो कभी नकली इंसान बन जाते है
पूजते हैं जीवन भर खुदा को
और खुद को ही भूल जाते हैं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें