काली घनी अधेरी रात सी जब दुनिया डराती थी
कोई नहीं था साथ मेरे सिर्फ मां ही साथ निभाती थी
अपने दर्द को ना जाने कब और कैसे भूल जाती थी
मा मेरी मुस्कान की खातिर अपना सारा जीवन लुटाती थी
जबभी में बेचैन सा होता ना जाने कहां से
जादूगर सी मा सब जान जाती थी
सामने मेरे हमेशा हस्ती थी वो अकेले में आंसू बहाती थी
मेरी हर बात पर हां में हां मिलाती थी
पापा की हर बात मानती थी वो
घर को खूब सजाती थी
बच्चों बनाने का बोझ था उस पर शायद
इसलिए वो रोज अपने खुदके ख़्वाबों का गला घोटा थी जाती थी
छोड़ दिया था उसने सब कुछ हमारी खातिर
किताबे , खवाहिसे ,अरमान , घर सब कुछ
फिर भी रोज़ नए ख़्वाब सजाती थी
अपने हर ख़्वाब का हिस्सा हमें बनाती थी
कोई गरीब नहीं दुनिया में सब कुछ उसके हिस्से आया है
जिसके हाथों में मां का हाथ और सर पे मां का साया है
लाखों की भीड़ है मगर पर सर पे अब वो हाथ नहीं है
सब है मेरे पास पर वो आवाज नहीं है
हां में बड़ा हो गया शायद
इसलिए अब मेरे पास मां नहीं है
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