बस अधुरा सा है गुज़र रहा
हर एक जिस्म यहां बेजान सा
यहां से वहां भटक रहा
क्या पाना है कहा जाना है किसी को नहीं पता
कई ख्वाहिश है अधूरी सी
पाने को है बहुत कुछ
तो ज़रा ये भी समझना
जीवन दरिया है बहता हुआ
इक बार बह गया तो वापिस ना आएगा
ये वक्त है साहिब निकल गया
तो लौट ना पाएगा
रह जाएगी सिर्फ यादें
ये जिस्म भी एक दिन माटी हो जाएगा
जिंदगी गर सफ़र है
तो सफ़र को सफ़र सा जिया जाए
जो मिले जैसा मिले जब मिले
उसी पल उसे अपना बना लो
हर पल खुश रहो
गर दिल टूटे कभी थोड़ा रोलो
अगले ही पल फिर मुस्कुरालों
गमों का अंधेरा तो हर तरफ़ है
तो क्यों ना खुशियों का चिराग
तुम भी जला लो
: आनर्त झा