शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

दर्द की इन्तहा

न जाने लफ्ज कुछ इस कदर खामोस है
जिस्म में ना जान है रूह को न होश है
मतलबी है वो या सरफ़रोश है
दुनिया में हरतरफ बाज़ार है
हर तरफ खरीद फरोख्त है
इंसानों की दुनिया से अब
इंसानियत भी रुसवा हो गयी
क्यों रूह भी रूह से जुदा हो गयी
मेरी ज़िन्दगी मुझसे खफा हो गयी
आ जाओ अब बस भी करो
अब इस दर्द की इन्तहा हो गयी
ना जाने वो मेरी जान मेरी जिंदगी
ना जाने कहा खो गयी


रविवार, 15 अप्रैल 2012

लम्हा

जख्म कुछ इस कदर है ,साँस थमी सी है ,
हर आरजू नयी है ,फिर भी आँखों में नमी सी है !
लम्हा लम्हा कुछ इस किदर  गुजर रहा है
सूरज को अब असमान निगल रहा है
अब तो चाँद भी मेरे चाँद से मिलाने को बेताब है
तुम आओगी, इस चाँद को भी आस है
तुम्हारे आने के अहसाश को जुदा मत होने देना
मेरे चाँद को चाँद से खफा मत होने देना